पलकों में बरसों की बूँदें जोड़ के बैठी हूँ।
साँझ सवेरे करती थी सिंगार कभी
सच दिखलाता नाजुक शीशा तोड़ के बैठी हूँ
जीवन में कुछ मोड़ अचानक आ जाते हैं
पहचानी गलियों से क़दम मोड़ के बैठी हूँ।
सपनों की दुनिया में उड़ती फिरती थी
छूटे घर में टूटे सपने छोड़ के बैठी हूँ
सूरज उगने पर ढल जाते घोर अँधेरे
फिर से ताज़ा ख़्वाब की चादर ओढ़ के बैठी हूँ.......
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